गणेशजी को मोदक का भोग ही क्यों लगाना चाहिए?

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श्रीगणेशजी को मोदकप्रिय कहा जाता है। वे अपने एक हाथ में मोदक पूर्ण पात्र रखते है। मोदक को महाबुद्धि का प्रतीक बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार पार्वती देवी को देवताओं ने अमृत से तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक दिया।

मोदक देखकर दोनों बालक (स्कन्द तथा गणेश) माता से माँगने लगे। तब माता ने मोदक के प्रभावों का वर्णन कर कहा कि तुममें से जो धर्माचरण के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसी को मैं यह मोदक दूँगी।
माता की ऐसी बात सुनकर स्कन्द मयूर पर पर बैठकर कुछ ही क्षणों में सब तीर्थों का स्नान कर लिया। इधर लम्बोदरधारी गणेशजी माता-पिता की परिक्रमा करके पिताजी के सम्मुख खड़े हो गये। तब पार्वतीजी ने कहा- समस्त तीर्थों में किया हुआ स्नान, सम्पूर्ण देवताओं को किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब प्रकार के व्रत, मन्त्र, योग और संयम का पालन- ये सभी साधन माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते।

इसलिये यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणों से भी बढ़कर है। अत: देवताओं का बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेश को ही अर्पण करती हूँ। माता-पिता की भक्ति के कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञ में सबसे पहले पूजा होगी। तत्पश्चात् महादेवजी बोले- इस गणेश के ही अग्रपूजन से सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हों।

” गणपत्यथर्वशीर्ष के अनुसार यो दूर्वाकुंरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति, स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वांछितफलमवाप्नोति।”
मतलब जो गणेश जी को दूर्वा चढ़ाता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो धान अर्पित करता है, वह यशस्वी होता है, मेधावान् होता है। जो मोदकों द्वारा उनकी उपासना करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। श्री गणपति के अर्थवशीर्ष के इस श्लोक से गणेश जी की मोदकप्रियता की पुष्टि होती है।गणेशजी को मोदक यानी लड्डू बहुत प्रिय हैं। इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है।

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