जो कुछ कहो क़ुबूल है तक़रार क्या करूं

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जो कुछ कहो क़ुबूल है तक़रार क्या करूं, 
शर्मिंदा अब तुम्हें सर-ए-बाज़ार क्या करूं, 

मालूम है की प्यार खुला आसमान है, 
छूटते नहीं हैं ये दर-ओ-दीवार क्या करूं, 

इस हाल मे भी सांस लिये जा रहा हूँ मैं, 
जाता नहीं हैं आस का आज़ार क्या करूं, 

फिर एक बार वो रुख-ए-मासूम देखता, 
खुलती नहीं है चश्म-ए-गुनाहगार क्या करूं, 

ये पुर-सुकून सुबह ये मैं ये फ़ज़ा शऊर, 
वो सो रहे हैं अब उन्हें बेदार क्या करूं।

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