होली के बाद एक सप्ताह में मां शीतला की पूजा का विधान है। पंडित अशोक शर्मा बताते हैं कि वैसे तो होली के बाद एक सप्ताह के भीतर इस पर्व को मनाया जाता है। लेकिन कई परिवारो में इसे सप्तमी या अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। जबकि कई परिवार इसे होली के बाद पडऩे वाले पहले सोमवार या गुरुवार को मनाते हैं। मान्यता है कि मां शीतला की पूजा पाठ और व्रत करने से हम सुरक्षित रहते हैं और अपने पथ से नहीं भटकते। वहीं व्रत करने से व्रत करने वो के कुल के सभी शीतल जनित दोष दूर होते हैं। आप भी जानें मां शीतला के व्रत और पूजन की महिमा
बसौड़ा भी है नाम
मां शीतला के इस व्रत और पूजन से एक दिन पहले कई तरह के पकवान तैयार किए जाते हैं। मीठे चावल, कड़ी, चने की दाल, हलवा, रबड़ी, बिना नमक की पूड़ी, पूए आदि पकवान तैयार किए जाते हैं। सप्तमी के दिन बासी भोजन देवी को नैवेद्य के रूप में अर्पित किया जाता है और फिर पूरा परिवार इसे ग्रहण करता है।
घर में नहीं जलता चूल्हा
शीतला सप्तमी के दिन घर में चूल्हा नहीं जलता है। समूचे उत्तर भारत में चूल्हा न जलाने की परंपरा का बड़ी आस्था से पालन किया जाता है। मान्यता है कि यह इस दिन के बाद से बासी भोजन नहीं किया जाता है। यह ऋतु का अंतिम बासी भोजन होता है।
इसी ऋतु में होती है उपासना
शीतला माता की उपासना अधिकांशत: वसंत और ग्रीष्म ऋतु में होती है। प्राचीन समय में चेचक के संक्रमण का यही मुख्य समय होता था। ऐसा भी माना जाता है कि मां शीतला मां भगवती दुर्गा का ही रूप हैं। जब चैत्र माह से गर्मी की शुरुआत होती है, तो शरीर में कई प्रकार के पित्त विकार भी शुरू होने लगते हैं। इन्हीं विकारों से बचाव के लिए मां शीतला का व्रत किया जाता है।
दिनचर्या में परिवर्तन का प्रतीक
शीतला सप्तमी को दिनचर्या में परिवर्तन का प्रतीक माना जाता है। यानी अब जो ऋतु शुरू हो रही है उसके हिसाब से दिनचर्या में बदलाव लाने हैं। इसलिए मां शीतला की पूजा का विधान पूर्णत: सामयिक है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ के कृष्ण पक्ष की सप्तमी और अष्टमी शीतला देवी की पूजा-अर्चना का दिन है। इन सभी अवसरों पर मौसम करवट लेता है और हमें अतिरिक्त सावधानी बरतना चाहिए। अपने खानपान और रहन-सहन में भी बदलाव लाना चाहिए।
ये भी जानें
* मां शीतला की प्रसन्नता से व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गंधयुक्त फोड़े, नेत्रों के विभिन्न रोगों, शीतला की फुंसियों के चिह्न तथा शीतलाजनिक रोगों से मुक्ति मिलती है।
* शीतला सप्तमी का व्रत और मां शीतला का पूजन लोग परिवार के स्वास्थ्य और खुशियों की उम्मीदों के साथ करते हैं।
* जीवन में सभी तरह के ताप से बचने के लिए मां शीतला का पूजन सर्वोत्तम उपाय है माना गया है।
* मां शीतला के हाथों में कलश, सूप, मार्जन (झाडूू) तथा नीम के पत्ते होते हैं।
* इन सभी वस्तुओं का प्रतीकात्मक महत्व है।
* चेचक के रोगी को व्यग्रता होने पर सूप से हवा दी जाती है। झाड़ू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोड़ों को सडऩे नहीं देते। रोगी को ठंडा जल अच्छा लगता है तो कलश की उपयोगिता है।
* स्कन्दपुराण में मां शीतला की अर्चना के लिए शीतलाष्टक स्रोत है। ऐसा माना जाता है कि इसकी रचना भगवान शंकर ने लोकहित में की थी।
* शीतला माता का पूजन वर और वधू दांपत्य जीवन में प्रवेश से पहले भी करते हैं। हल्दी लगने से पहले लड़का और लड़की जो माता पूजन करते हैं, उसमें शीतला माता की ही पूजा की जाती है।
* परंपराओं में गणेश पूजन से भी पहले मातृका पूजन किया जाता है।
* मां की पूजा करने के पीछे मान्यता यही है कि उससे दांपत्य में प्रवेश करने जा रहे वर और वधू के जीवन खुशहाल बना रहे।
* जब विवाह से पूर्व वर या वधू मां की पूजा के लिए जाते हैं, तो उस समय भी उनके ऊपर कपड़ा या चुनर से छांव कर दी जाती है और इसका अर्थ है कि ताप से जीवन की कोमलता नष्ट न हो।