बिना लोभ लालच के हम संस्कृत का ज्ञान विद्यार्थियों को दें-श्री एम.बी. ओझा

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उज्जैन- (ईपत्रकार.कॉम) |संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। जननी भाषा को भूलना नहीं चाहिए। हम सभी का कर्तव्य है कि हम संस्कृत भाषा के प्रवाह को निरंतरता दें। संस्कृत और संस्कृति के क्षेत्र में काम करना कठिन है। भौतिकवादी युग में त्याग और तपस्या से ही संस्कृत और हमारी संस्कृति के लिए काम किया जा सकता है। भारतीय संस्कृति के लिए हमें सेवाएं निरंतर देना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति गुरू और शिष्य दोनों की भूमिका निभा सकता है। बिना लोभ लालच के हम संस्कृत का ज्ञान विद्यार्थियों को दें।

इस आषय के विचार शिक्षा संस्कृति उतान न्यास नई दिल्ली, श्री महाकालेश्वर वैदिक प्रशिक्षण एवं शोध संस्थान उज्जैन तथा अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय भोपाल के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय वैदिक गणित राष्ट्रीय कार्यशाला के शुभारंभ अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में संभागायुक्त श्री एम.बी. ओझा ने व्यक्त किये। संभागायुक्त श्री ओझा ने कहा कि संस्कृत भाषा को सहजभाव में बोला जा सकता है। इस भाषा को और कैसे सरल किया जा सकता है इस पर प्रयास किया जाना चाहिए। इस अवसर पर श्री अशोक सोहनी ने कहा कि वेदों के प्राचीनतम ज्ञान को पूरे विश्व में माना है। आज का विज्ञान भी वेदों के ज्ञान पर शोध कर रहा हैं। हमारे वेदों से ही अन्य विषय निकले है। संस्कृत और विज्ञान के समन्वय की आज जरूरत है। विज्ञान के विद्यार्थी संस्कृत सीखें और इसके लिए योजना बनाई जानी चाहिए। वैदिक गणित से कोई भी अछूता नहीं है। सबके जीवन में गणित का बहुत बड़ा महत्व है।

महर्षि पाणिनी संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.रमेशचन्द्र पण्डा ने कहा कि हम सब भारतवासी भाग्यवान है क्योंकि हमने भारत में जन्म लिया है और इस धरा पर हमारे ऋषि-मुनियों ने वेदों का ज्ञान दिया है। हमारे वेदों में ज्ञान-विज्ञान हैं। वेदों से ही ज्ञान आगे बढ़ता है और वेद से ही गणित शास्त्र निकला हैं। विश्व के प्रथम लिखित वेदों की रचना भारत में ही हुई है। वेदों में ज्ञान और विज्ञान दोनों समाहित है। सभी विधाएं वेदों से ही निकली है। वेद भौतिकता और आध्यात्मिकताओं का समिश्रण है। गणित शास्त्र को राशि विद्या भी कहते है। प्रतियोगी परीक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए वैदिक गणित सहायक है। इसके लिए हमारे विश्वविद्यालयों में कक्षाएं आयोजित करना चाहिए।

महर्षि सांदिपनी राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठान के सचिव श्री विरूपाक्ष वी.जड्डीपाल ने देवभाषा संस्कृत में दिये उद्बोधन में कहा कि संस्कृत की अपनी गरिमा है। संस्कृत से ही श्रीमद्भागवत की उत्पत्ति हुई है। संस्कृत में विद्या, कला एवं प्रबंधन है। श्री महाकालेश्वर मंदिर प्रबंध समिति के सदस्य श्री विभाष उपाध्याय ने भी अपने विचार प्रकट करते हुए कहा दर्शन एवं गणित में भेद नहीं है। यह दोनों विषय पूर्णता की ओर ले जाते हैं। शेष विषय विचार है और हमें विचारों का अभ्यास करना पडता है। विषयों पर आत्मज्ञान का बोध होना चाहिए, मंदिर प्रबंध समिति के सदस्य पं.प्रदीप गुरू ने भी अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि भगवान शिव ही संसार के सबसे बडे वैदिक गणित के ज्ञाता है। जिन्होंने पूरे नौ ग्रहों को ब्रम्हाण्ड मंडल के अंदर इस तरीके से स्थापित किया है कि वह कालगणना अनुसार घूमते रहते है। संपूर्ण संसार की प्रकृति, प्रवृति और जीव चराचर को समय अनुसार बांध रखा है।

कार्यशाला का सर्वप्रथम अतिथियों के द्वारा मां सरस्वती एवं जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी भारतीय कृष्णतीर्थ के चित्रों पर पुष्पमाला अर्पित कर दीप प्रज्वलन कर स्वस्ति वाचन से शुभारंभ किया गया। कार्यक्रम के शुभारंभ सत्र के प्रारंभ में स्वागत वक्तव्य एवं अतिथि परिचय कार्यक्रम संयोजक डॉ.व्ही.के. गुप्ता ने प्रस्तुत किया। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास नई दिल्ली के वैदिक गणित प्रकल्प के राष्ट्रीय संयोजक श्री कैलाश विश्वकर्मा ने कार्यशाला की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए कहा कि कार्यशाला के प्रतिभागियों ने क्या सीख सकता हूं और कैसे सिखा सकता हूं, पर मंथन किया। कार्यशाला के आरंभ में अतिथियों का स्वागत प्रशासक श्री क्षितिज शर्मा, डॉ.राजेन्द्र गुप्ता, डॉ.आर.एम.शुक्ला, श्री भरत व्यास, श्री बच्चुभाई रावल, श्री विश्वनाथ उणकरलकर, श्रीराम चैयविप्ले एवं डॉ.जफर महमूद ने महाकाल का प्रसाद, दुपट्टा एवं पुस्तक भेंट कर किया। कार्यक्रम का संचालन श्री धर्मेन्द्र यादव ने किया और अंत में आभार डॉ.पीयूष त्रिपाठी ने प्रकट किया। इस अवसर पर श्री महाकालेश्वर मंदिर प्रबंध समिति के प्रशासक श्री क्षितिज शर्मा, सहायक प्रशासक सुश्री प्रति चौहान सहित देश के विभिन्न प्रान्तों के विशेषज्ञ आदि उपस्थित थे।

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